मनकही
Thursday, February 28, 2019
Tuesday, December 21, 2010
ए राजा और येदुरप्पा भारतीय जन मानस के सच्चे प्रतिनिधि हैं। ओर ये बात मैं मजाक में नहीं कह रहा....
ए राजा और येदुरप्पा भारतीय जन मानस के सच्चे प्रतिनिधि हैं। ओर ये बात मैं मजाक में नहीं कह रहा.....
बल्कि ये बात मैं बहुत सोच विचार के बाद कह रहा हूं। भ्रष्टाचार का मुद्दा मीडिया में हर तरफ छाया हुआ है हर कोई राडिया, राजा येदुरप्पा और पुराने से पुराने इनके साथियों के नाम खोज खोज कर निकाल रहा है। एक दल दूसरे दल पर छींटाकशी कर रहे हैं। हम भी इसमें अपनी अपनी सुविधा के हिसाब से सुर में सुर मिला रहे हैं। लेकिन एक बात की ओर हमारा ध्यान नहीं जाता। हम कामकाजी लोग, मध्यमवर्ग के प्रतिनिधि रोजाना जितनी धांधली करते हैं उसको हमने मान्य की कैटेगरी में डाल रखा है। अब चाहें रोजाना आफिस के बनने वाले बिलों की बात हो या दुकान पर प्रिंट रेट से दो एक रूपये ज्यादा लेने की बात हो या आफिस में समय से दस पांच मिनट देरी से पहुंचने पर हस्ताक्षर करते समय अपेक्षित समय ही डालना हो, या किसी दफ्तर में अपना काम निकलवाने के लिए छोटी मोटी घूस देना हो या ट्रांसफर रूकवाने या बहाली करवाने और फाइल बढ़ाने या स्कवाने के लिए उत्कोच देना या लेना हो। पुलिस महकमे और एक्साइज विभाग, बिक्रीकर आयकर आदि विभागों के किस्से हम आए दिन सुनते रहते हैं और उसे एक खबर की तरह पढ़ कर छोड़ देते हैं उस पर न तो कोई बवाल मचता है और न ही उसका कुछ हमें चौथे रोज ध्यान रहता है। लेकिन जैसे ही कोई नेता या हमारा प्रतिनिधि करोड़ों की घूस या धांधली में आरोपित होता है हम अपना सब कुछ लेकर उसके पीछे पिल पड़ते हैं। मानो उसे सूली चढ़ाकर हम भ्रष्टाचार से मुक्त हो जाएंगे।
ऊपर पहली पंक्ति में कही बात को इस तरह भी देख सकते हैं कि जनता के प्रतिनिधि जनता की ही मनोभावनाओं और आकांक्षाओं को व्यक्त करते हैं। लोकतंत्र में सत्ता मतों से तैयार होती है और मतों की शक्ति और उसका सारा स्याह सफेद उन मतों के जरिए सत्ता पर काबिज होता है। जब नेता या पार्टियां अपने बैनर तले चुनाव लड़ने के पैसे लेंगी और चुनाव लड़ते समय अनुदानों और दानों के माध्यम से धनबलियों से चंदा उगाहेंगी तो सत्ता में आने पर उनके हितों का ध्यान रखना लाजमी होगा और एक तरह से नैतिक भी।
अब आप ही तय करें कि चोर सुखराम, ए राजा, राडिया, येदुरप्पा और कलमाड़ी हैं या हम हैं ?
Friday, November 12, 2010
My EXperience at JNU
जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में मैं लगभग 9 वर्ष रहा। इस दौरान बहुत से खट्टे मीठे अनुभव रहे। उन अनुभवों की असंख्य छवियां मौजूद हैं ज़हन में लेकिन जगह के अभाव में मैं दो का ही जिक्र करूंगा।
इस दोनों टुकड़ों का पोलिटिकल जेनर अलग है। पहला अनुभव कैम्पस की एक ऐसी छवि देता है जो लगभग अनूठी सी है और दूसरे में राजनैतिक सरगर्मी तो थी लेकिन अब पुराने होने के नाते उन्हें ढंकते हुए उसे एक आम लेकिन बेहद खास किस्म की संवेदना के साथ प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है।
एक
बात सन् 95 के आस पास की है एक दिन सोमवार की सुबह एस बी आई की एक्सटेंशन ब्रांच में पैसे निकालने पहुंचा तो देखा लम्बी कतार लगी हुई है। उन दिनों सोमवारों को यही हाल हो जाया करता था। एक्सटेंशन ब्रांच में दो कर्मी ही बैठते थे। सूटकेस में पैसे लेकर वे लगभग दस बजे वहां पहुंचते थे लेकिन कतार सुबह नौ बजे से ही लगना शुरू हो जाती थी। बैंक कर्मियों के आते आते तो ये कतार कभी कभी कावेरी हॉस्टल के गेट तक पहुंच जाती थी। सो कुछ इसी तरह के एक दिन जब मैं वहां पहुंचा तो कतार काफी लम्बी थी और नीलिगिरि ढाबे तक पहुंच चुकी थी। मैं भी लइन में खडा़ हो गया और जब बैंक के अंदर पहुंचा तो देखा कि बैंक काउंटर के पीछे एक ही कर्मी काम कर रहा था। ये कम्प्यूटर हीन युग था। उस कर्मी को ही पे इन या विद्ड्राल फार्म चेक करने थे पैसे लेने या देने थे और रजिस्टर में इन्ट्री भी करनी थी। इतने सारे कामों को वह अकेले सम्हाल रहा था। तभी मेरी नजर उस काउंटर पर पड़ी। देखा बैंक कर्मी ने सौ के नोट का एक बंडल खोल कर काउंटर पर रख दिया। लेकिन क्यों ? ये मेरी समझ में तब आया जब अगले छात्र ने उसमें से स्वयं विद्ड्राल स्लिप पर भरी रकम उस गड्डी में से निकाल ली। ये क्रम आगे भी चलता रहा। जब मेरा नम्बर आया तो मुझसे रहा नहीं गया ओर मैंने पूछ लिया कि भाई साहब, आप इस तरह से क्यों कर रहे हैं अगर किसी ने एक नोट भी गलती से निकाल लिया तो? साहब ने बडे़ इत्मीनान से जवाब दिया ‘’पिछले तीन दिनों मैं अकेला ही काम कर रहा हूं और ये गलती 2 बार हो चुकी है और दोनों ने पैसे वापस कर दिए। और जे एन यू के छात्रों को मैं आपसे ज्यादा जानता हूं।‘’
अभी कुछ साल पहले जब मैं जे एन यू गया तो देखा कि बैंक के बाहर एक गनमैन खड़ा है। पता नहीं किस की सुरक्षा के लिए उसे तैनात किया गया था...
दो
ये घटना सन् 97 की है। मैं सतलज छात्रावास में रहता था और 7 मार्च को उसका हॉस्टल डे था। सभी तैयारियां थी और लोगों में जबरदस्त उत्साह था। शाम हुई उत्सव शुरू हुआ। देर रात तक झेलम लॉन्स में ऑरकेस्ट्रा भी बुलाया गया था। उस ऑरकेस्ट्रा में लड़कियों को नाचने के लिए भी बुलाया गया था। ये बात मेरे समेत अनेक लोगों को खटकी, लेकि तब जो अति हो गई जब कुछ लोगों ने उनके नाचने पर सीटियां बजाना शुरू कर दिया। विरोध किया गया। अपने साथ रहने वालों से झगड़ा किया। थोड़ी हाथापाई भी हुई। बवाल बढ़ा और सतलज के खिलाफ एक आंदोलन सा छिड़ गया। इसमें मुझ जैसे कुछ सतलज वासी भी शामिल थे। पैम्फलेट बाजी भी हुई। सबके तर्क सामने आए। इस बीच एक बेहद भद्दा बेनाम पैम्फलेट आया जिसने सतलज छात्रावास के छात्रों को बैकफुट पर आने पर मजबूर कर दिया। पैम्फलेट में भदेस भाषा में छात्राओं के लिए अनर्गल टिप्पणियां की गई थीं।
8 मार्च को ये पैम्फलेट आया था और इसी दिन महिला दिवस भी मनाया जाता है। समूचे कैम्पस की छात्राओं ने इसके विरोध में मशाल जलूस निकाला। सतलज के छात्रों ने भी इस पैम्फलेट का विरोध करना चाहा था लेकिन वे पहले से ही टारगेटेड थे सो तय किया गया कि हॉस्टल के गेट के अन्दर ही रहकर बैनर दिखकर विरोध जता दिया जाएगा। इस उद्देश्य से सतलज के सारे छात्र ( उनको छोड़कर जो पहले से ही हॉस्टल डे के कार्यक्रम के विरोध में थे।) हास्टल के गेट पर जुलूस की प्रतीक्षा करने लगे। विरोध जुलूस कुछ ज्यादा ही लम्बा हो गया और देरी भी। छात्रावासियों का धैर्य जवाब दे गया ओर वे मुख्य मार्ग की ओर मोड़ तक आ गये। अब उनको वापस भेजने की नवोदित नेताओं की हर कोशिश नाकाम हुई। वे वहीं डट गये और उधर से जुलूस आगे बढ़ आया और झेलम हॉस्टल जाने के लिए रास्ता मांगा। इस पर सतलज वासियों ने मांग रखी कि पहले पिछले दिन एक लड़की द्वारा प्रयुक्त अभद्र भाषा के लिए माफी मांगे। दोनों पक्ष अड़ गए। धरना शुरू हो गया।
रात 9 बजे शुरू हुआ धरना रात 1 बजे तक चलता रहा। प्रशासन के अधिकारी आकर समझाइश करने की कोशिश करके चले गए। धरना चलता रहा। 3 बज गए। अधिकांश लोग उठकर जाने लगे। कुछ जिद्दी जीव (लगभग 50) बैठे रहे। इसी बीच एक सीनियर छात्र ने उठकर कह दिया कि ‘अगर किसी को ठेस लगी है तो उसके लिए माफी' । इस पर सतलज के छात्रों को तो वापस जाने का सुनहरा मौका मिल गया। लेकिन मजा तो तब आया जब जुलूस में आई लडकियों ने उन्हें रोक लिया और कहा कि ‘कोई माफी वाफी नहीं मांगी गई है। आप लोग अपना धरना जारी रखें और हम भी अपना धरना जारी रखेंगे’।
शायद ये स्पिरिट जिसमें ये बात कही गई हास्यास्पद लगे लेकिन अगर देखें तो ये वो भावना थी जिसमें हम आपके विरोध करने और आपके इस अधिकार के लिए खुद भी जोखिम उठाने के लिए भी तैयार हैं। ऐसा कहने वाले तो आपको खूब मिलेंगे लेकिन रात के तीन बजे धरने पर अपने विरोधियों को साथ बैठाने की ये कोशिश शायद कहीं और न मिले।
Saturday, June 19, 2010
हिंदी मेरे राष्ट्र की भाषा है तथा इसका सम्मान मेरा कर्तव्य है|
ये पंक्तियां बेमानी ही नहीं झूठी भी हैं
हिन्दी भारत की एक भाषा है तो तमिल, तेलगु, असमी, उडि़या, डोगरी गुजराती और कन्नड़ भी इसी देश की भाषाएं है। अफसोस ये है कि हम हिन्दी भाषी इतने आत्मश्लाघा में जीते हैं कि हमें किसी और का ध्यान ही नहीं रहता। क्या हम भारत की बहुभाषिकत पर गर्व नहीं कर सकते। जल्दबाजी में उत्तर देने के बजाय थोडा विचार कीजिए ...... जी
भांति ज्ञात है की हिंदी हमारी राज भाषा है परन्तु मुझे समझ नहीं आता की आपको इस नाम में ऐसी क्या आपत्ति दिखी जो आपने यह जुमला लिखा | मेरे राष्ट्रिय में जन्मी हर भाषा मेरे राष्ट्र की भाषा है तथा उस भाषा का में तहे दिल से सम्मान करता हु | जय हिंद जय हिंदी
पहले तो सोचा कि कौन पडे झंझट में लेकिन ये तो उन्हें मौका देना था इसलिए अपना पक्ष रखना जरूरी लगा सो जवाब दिया-
आपकी पूरी बात सही है सिवाय अंतिम जुमले के जिसमें आप जय हिन्द के साथ एक सांस में जय हिन्दी भी बोल जाते है। आपको पता ही होगा कि एक दौर में राष्ट्रवाद के लिए हिन्दू हिन्दी हिन्दुस्तान का नारा बुलन्द किया गया थ जिसमें फिरका परस्ती की बू शामिल थी।
हर भाषा के सम्मान की बात तो मैंने भी कही है। और रही राष्ट्र की भाषा और राष्ट्र भाषा का मामला तो मैं यही कहूँगा कि राष्ट्र की भाषा कहने में उसका राष्ट्रीय चरित्र का भाव ही झलकता है जितना राष्ट्र भाषा कहने में।हिन्दी राष्ट्र की अनेक भाषाओं में एक भाषा है।
हिन्दी का चरित्र क्षेत्रीय है न कि राष्ट्रीय
मेरी कश्ती वहीँ डूबी, जहाँ पानी कम था!!"
और हां अभिषेक जी और श्वेता जी निश्चित तौर पर ये हिन्दी आपकी भी मातृ भाषा नहीं हो सकती। कभी उसका रूख भी कीजिए। उसकी भी जय बोलें।
एक और सवाल भी- हिन्दी को शायद इस तरह के किसी पेज की जरूरत ही नहीं है। हां हिन्दी के नाम पर राजनीति करने वालों की बात और है
हिन्दी हमारे बडे़ देश के एक हिस्से की कामकाज की भाषा है। न तो ये किसी की मातृ भाषा है और न ही राष्ट्र भाषा। इसे राष्ट्र भााा कहने का बहुप्रचारित झूठ अब लोग जानने लगे है। हिन्दू के बजाय हिन्दी का राष्ट्रवाद बनाने का काम आजादी से पहले से चल रहा है लेकिन किसी लोकतंत्र में इस भाषा को भी उतना ही सम्मान मिले तो कोई ऐतराज नहीं।