ए राजा और येदुरप्पा भारतीय जन मानस के सच्चे प्रतिनिधि हैं। ओर ये बात मैं मजाक में नहीं कह रहा.....
बल्कि ये बात मैं बहुत सोच विचार के बाद कह रहा हूं। भ्रष्टाचार का मुद्दा मीडिया में हर तरफ छाया हुआ है हर कोई राडिया, राजा येदुरप्पा और पुराने से पुराने इनके साथियों के नाम खोज खोज कर निकाल रहा है। एक दल दूसरे दल पर छींटाकशी कर रहे हैं। हम भी इसमें अपनी अपनी सुविधा के हिसाब से सुर में सुर मिला रहे हैं। लेकिन एक बात की ओर हमारा ध्यान नहीं जाता। हम कामकाजी लोग, मध्यमवर्ग के प्रतिनिधि रोजाना जितनी धांधली करते हैं उसको हमने मान्य की कैटेगरी में डाल रखा है। अब चाहें रोजाना आफिस के बनने वाले बिलों की बात हो या दुकान पर प्रिंट रेट से दो एक रूपये ज्यादा लेने की बात हो या आफिस में समय से दस पांच मिनट देरी से पहुंचने पर हस्ताक्षर करते समय अपेक्षित समय ही डालना हो, या किसी दफ्तर में अपना काम निकलवाने के लिए छोटी मोटी घूस देना हो या ट्रांसफर रूकवाने या बहाली करवाने और फाइल बढ़ाने या स्कवाने के लिए उत्कोच देना या लेना हो। पुलिस महकमे और एक्साइज विभाग, बिक्रीकर आयकर आदि विभागों के किस्से हम आए दिन सुनते रहते हैं और उसे एक खबर की तरह पढ़ कर छोड़ देते हैं उस पर न तो कोई बवाल मचता है और न ही उसका कुछ हमें चौथे रोज ध्यान रहता है। लेकिन जैसे ही कोई नेता या हमारा प्रतिनिधि करोड़ों की घूस या धांधली में आरोपित होता है हम अपना सब कुछ लेकर उसके पीछे पिल पड़ते हैं। मानो उसे सूली चढ़ाकर हम भ्रष्टाचार से मुक्त हो जाएंगे।
ऊपर पहली पंक्ति में कही बात को इस तरह भी देख सकते हैं कि जनता के प्रतिनिधि जनता की ही मनोभावनाओं और आकांक्षाओं को व्यक्त करते हैं। लोकतंत्र में सत्ता मतों से तैयार होती है और मतों की शक्ति और उसका सारा स्याह सफेद उन मतों के जरिए सत्ता पर काबिज होता है। जब नेता या पार्टियां अपने बैनर तले चुनाव लड़ने के पैसे लेंगी और चुनाव लड़ते समय अनुदानों और दानों के माध्यम से धनबलियों से चंदा उगाहेंगी तो सत्ता में आने पर उनके हितों का ध्यान रखना लाजमी होगा और एक तरह से नैतिक भी।
अब आप ही तय करें कि चोर सुखराम, ए राजा, राडिया, येदुरप्पा और कलमाड़ी हैं या हम हैं ?
यह सरलीकरण है भाई…यह देखना होगा कि भ्रष्टाचार पैदा कहां से होता है?
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